Thursday, January 22, 2009

समन्दर ...

इतना कि _
जितना उससे नहीं हो सकता था
हूलते हुए दर्द को पी जाना सहज न था
तब तो वह जानती ही न थी
दर्द कहते किसे हैं

वह तो _
खेलते हुए ठोकर लग जाने को
दर्द का का नाम देकर
माँ के आँचल के खूंटे से बाँध आती थी

तब तो पता ही न था
कि - पहली बार किए गए प्यार में भी
खून कि धार का दर्द लिपटा होता है
और
मिलन की सारी उमंग
सहसा भय की सिसकियों में बदल जाया करती है
इसी को तो कौमार्य व्रत भंग कहते हैं
और तब सहसा
भूली हुई कुंती याद आती है
यह कैसा लोक लाज है
जिसे लाज नहीं आती ।

_ मधुलिका

9 comments:

vikram singh bathyal said...

I like your poem and writing skill,keep it up.

Unknown said...

आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं

इस्लामिक वेबदुनिया said...

aapka blog achha laga

D.P. Mishra said...

आपका ब्लॉग देखा बहुत अच्छा लगा.... मेरी कामना है की आपके शब्दों को नई ऊर्जा, नई शक्ति और व्यापक अर्थ मिलें जिससे वे जन-साधारण के सरोकारों का सार्थक प्रतिबिम्बन कर सकें.

पूनम श्रीवास्तव said...

Madhulika,
Apkee donon kavitaon men jo aag,dard chhipa hai....vidroh kee jo lava hai ..use age bhee barkarar rakhiyega.shubhkamnayen.
Poonam

अभिषेक मिश्र said...

Aapki donon kavitayein padhin. Mahadevi verma ki unchaiyon ko hasil karne ki shubhkaamnayein. Swagat, blog parivar aur mere blog par bhi..

Anonymous said...

Aapki dono rachnaye padhee, doni hi bahut hi sundar hai, dard man ko gahre tak chhoo gaya,
ye woed verification hata le.



--------------------------"VISHAL"

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

मधुलिका जी,
अच्छी कविता .काफी तपिश और आग है आपकी कलम में .लिखती रहिये .शुभकामनायें.
हेमंत कुमार

Anonymous said...

रसात्मक और सुंदर अभिव्यक्ति